भागवत गीता भूमिका

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
श्री चैतन्यमनोऽ भीष्टं स्थापितं येन भूतले ।
स्वयं रूपः कदा महां ददाति स्वपदान्तिकम् ॥

मैं घोर अज्ञान के अंधकार में उत्पन्न हुआ था और मेरे गुरु ने अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से मेरी आँखें खोल दीं। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।

श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद कब मुझे अपने चरणकमलों में शरण प्रदान करेंगे, जिन्होंने इस जगत् में भगवान् चैतन्य की इच्छा की पूर्ति के लिए प्रचार योजना (मिशन) की स्थापना की है ?

वन्देऽहं श्रीगुरोः श्रीयुतपदकमलं श्रीगुरून् वैष्णवांश्च ।
श्रीरूपं साग्रजातं सहगणरघुनाथान्वितं तं सजीवम् ॥
साद्वैतं सावधूतं परिजनसहितं कृष्णचैतन्यदेवं ।
श्रीराधाकृष्णपादान् सहगणललिता श्रीविशाखान्वितांश्च ॥

मैं अपने गुरु के चरणकमलों को तथा समस्त वैष्णवों के चरणों को नमस्कार करता हूँ। मैं श्रील रूप गोस्वामी तथा उनके  ती राधा रानी तथा श्रीकृष्ण को श्रीललिता तथा श्रीविशाखा सखियों सहित सादर नमस्कार करता हूँ।

हे कृष्ण करुणासिन्धो दीनबन्धो जगत्पते ।
गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तु ते ॥

हे कृष्ण! आप दुखियों के सखा तथा सृष्टि के उद्गम हैं। आप गोपियों के स्व तथा राधारानी के प्रेमी हैं। मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ।

तप्तकाञ्चनगौराङ्गि राधे वृन्दावनेश्वरी
वृषभानुसुते देवि प्रणमामि हरिप्रिये ॥

मैं उन राधारानी को प्रणाम करता है, जिनकी शारीरिक कान्ति पिमले सोने के श है, जो वृन्दावन की महारानी है। आप राजा वृषभानु की पुत्री हैं और भगवान् कृष्ण को अत्यन्त प्रिय हैं।

वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपासिन्धुभ्य एव च।
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः ॥

मैं भगवान् के समस्त वैष्णव भक्तों को सादर नमस्कार करता हूँ। वे कल्पवृक्ष के समान सबों की इच्छाएँ पूर्ण करने में समर्थ हैं तथा पतित जीवात्माओं के प्रति अत्यन्त दयालु हैं।

श्रीकृष्ण चैतन्य              प्रभु-नित्यानन्द ।
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द ॥

मैं श्रीकृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानन्द, श्रीअद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि समस्त भक्तों को सादर प्रणाम करता हूँ।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।

               भगवद्गीता को गीतोपनिषद् भी कहा जाता है। यह वैदिक ज्ञान का सार है और वैदिक साहित्य का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपनिषद् है। निस्सन्देह भगवद्गीता पर अंग्रेजो भाषा में अनेक भाष्य प्राप्त हैं, अतएव एक अन्य भाष्य की आवश्यकता के बारे में प्रश्न किया जा सकता है। इस प्रस्तुत संस्करण का प्रयोजन इस प्रकार बताया जा सकता है: हाल ही में एक अमरीकी महिला ने मुझसे भगवद्गीता के एक अंग्रेजी अनुवाद की संस्तुति चाही। निस्सन्देह अमरीका में भगवद्गीता के अनेक अंग्रेजी संस्करण उपलब्ध हैं, लेकिन जहाँ तक मैंने देखा है, केवल अमरीका ही नहीं, अपितु भारत में भी उनमें से कोई पूर्ण रूप से प्रामाणिक संस्करण नहीं मिलेगा, क्योंकि लगभग हर एक संस्करण में भाष्यकार ने भगवद्गीता यथारूप के मर्म का स्पर्श किये बिना अपने मतों को व्यक्त किया है।
               भगवद्गीता का मर्म भगवद्गीता में ही व्यक्त है। यह इस प्रकार है: यदि हमें किसी औषधि विशेष का सेवन करना हो तो उस पर लिखे निर्देशों का पालन करना होता है। हम मनमाने ढंग से या मित्र की सलाह से औषधि नहीं ले सकते। इसका सेवन लिखे हुए निर्देशों के अनुसार या चिकित्सक के निर्देशानुसार करना होता है। इसी प्रकार भगवद्गीता को इसके वक्ता द्वारा दिये गये निर्देशानुसार ही ग्रहण या स्वीकार करना चाहिए। भगवद्गीता के वक्ता भगवान् श्रीकृष्ण हैं। भगवद्गीता के प्रत्येक पृष्ठ पर उनका उल्लेख भगवान् के रूप में हुआ है। निस्सन्देह भगवान् शब्द कभी-कभी किसी भी अत्यन्त शक्तिशाली व्यक्ति या किसी शक्तिशाली देवता के लिए प्रयुक्त होता है और यहाँ पर भगवान् शब्द निश्चित रूप से भगवान् श्रीकृष्ण को एक महान व्यक्तित्व वाला बताता है। किन्तु साथ ही हमें यह जानना होगा कि भगवान् श्रीकृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, जैसा कि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्क स्वामी, श्री चैतन्य महाप्रभु तथा भारत के वैदिक ज्ञान के अन्य विद्वान आचार्यों ने पुष्टि की है। भगवान् ने भी स्वयं भगवद्गीता में अपने को परम पुरुषोत्तम भगवान् कहा है और ब्रह्म-संहिता में तथा अन्य पुराणों में, विशेषतया श्रीमद्भागवतम् में, जो भागवतपुराण के नाम से विख्यात है, वे इसी रूप में स्वीकार किये गये हैं (कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ) अतएव भगवद्गीता हमें भगवान् ने जैसे बताई है, वैसे ही स्वीकार करनी चाहिए।

भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय में (४.१-३) भगवान् कहते हैं :
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि में सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥

यहाँ पर भगवान् अर्जुन को सूचित करते हैं कि भगवद्गीता की यह योगपद्धति सर्वप्रथम सूर्यदेव को बताई गयी, सूर्यदेव ने इसे मनु को बताया और मनु ने इसे इक्ष्वाकु को बताया। इस प्रकार गुरु-परम्परा द्वारा यह योगपद्धति एक वक्ता से दूसरे वक्ता तक पहुँचती रही। लेकिन कालान्तर में यह छिन्न-भिन्न हो गई, फलस्वरूप भगवान् को इसे फिर से बताना पड़ रहा है-इस बार अर्जुन को कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में।
वे अर्जुन से कहते हैं कि मैं तुम्हें यह परम रहस्य इसलिए प्रदान कर रहा हूँ, क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो। इसका तात्पर्य यह है कि भगवद्गीता ऐसा ग्रन्थ है, जो विशेष रूप से भगवद्भक्त के लिए है, भगवद्भक्त के निमित्त है। अध्यात्मवादियों की तीन श्रेणियाँ हैं- ज्ञानी, योगी तथा भक्त या कि निर्विशेषवादी, ध्यानी और भक्त। यहाँ पर भगवान् अर्जुन से स्पष्ट कहते हैं कि वे उसे इस नवीन परम्परा (गुरु-परम्परा) का प्रथम पात्र बना रहे हैं, क्योंकि प्राचीन परम्परा खण्डित हो गई थी। अतएव यह भगवान् की इच्छा थी कि सूर्यदेव से चली आ रही विचारधारा की दिशा में ही अन्य परम्परा स्थापित की जाय और उनकी यह इच्छा थी कि उनकी शिक्षा का वितरण अर्जुन द्वारा नये सिरे से हो। वे चाहते थे कि अर्जुन भगवद्गीता ज्ञान का प्रामाणिक विद्वान बने। अतएव हम देखते हैं कि भगवद्गीता का उपदेश अर्जुन को विशेष रूप से दिया गया, क्योंकि अर्जुन भगवान् का भक्त, प्रत्यक्ष शिष्य तथा घनिष्ठ मित्र था। अतएव जिस व्यक्ति में अर्जुन जैसे गुण पाये जाते हैं, वह भगवद्गीता को सबसे अच्छी तरह समझ सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि भक्त को भगवान से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित होना चाहिए। ज्योंही कोई भगवान् का भक्त बन जाता है, त्योंही उसका सीधा सम्बन्ध भगवान् से हो जाता है। यह एक अत्यन्त विशद् विषय है, लेकिन संक्षेप में यह बताया जा सकता है कि भक्त तथा भगवान् के मध्य पाँच प्रकार का सम्बन्ध हो सकता है।

१. कोई निष्क्रिय अवस्था में भक्त हो सकता है:
२. कोई सक्रिय अवस्था में भक्त हो सकता
३. कोई सखा रूप में भक्त हो सकता है;
४. कोई माता या पिता के रूप में भक्त हो सकता है:
५. कोई दम्पतिं प्रेमी के रूप में भक्त हो सकता है।

अर्जुन का कृष्ण से सम्बन्ध सखा-रूप में था। निस्सन्देह इस मित्रता (सख्य भाव) तथा भौतिक जगत में पायी जाने वाली मित्रता में आकाश-पाताल का अन्तर है। यह दिव्य मित्रता है, जो हर किसी को प्राप्त नहीं हो सकती। निस्सन्देह प्रत्येक व्यक्ति का भगवान् से सीधा सम्बन्ध होता है और यह सम्बन्ध भक्ति की पूर्णता से ही जागृत होता है। किन्तु जीवन की वर्तमान अवस्था में हमने न केवल भगवान को भुला दिया है, अपितु हम भगवान् के साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध को भी भूल चुके हैं। लाखों-करोड़ों जीवों में से प्रत्येक जीव का भगवान् के साथ नित्य विशिष्ट सम्बन्ध हैं। यह स्वरूप कहलाता है। भक्तियोग की प्रक्रिया द्वारा यह स्वरूप जागृत किया जा सकता है। तब यह अवस्था स्वरूप-सिद्धि कहलाती है— यह स्वरूप की अर्थात् स्वाभाविक या मूलभूत स्थिति की पूर्णता कहलाती है। अतएव अर्जुन भक्त था और वह भगवान् के सम्पर्क में मित्र रूप में था।
हमें इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि अर्जुन ने भगवद्गीता को किस तरह ग्रहण किया। इसका वर्णन दशम अध्याय में (१०.१२-१४) इस प्रकार हुआ है:

अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिनरदस्तथा |
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्ति विदुर्देवा न दानवाः ॥

अर्जुन ने कहा: आप भगवान्, परम-धाम, पवित्रतम, परम सत्य हैं। आप शाश्वत, दिव्य आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं। नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे समस्त महामुनि आपके विषय में इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं मुझसे इसी की घोषणा कर रहे हैं। हे कृष्ण। आपने जो कुछ कहा है, उसे पूर्णरूप से मैं सत्य मानता हूँ। हे प्रभु! न तो देवता और न असुर ही आपके व्यक्तित्व को समझ सकते हैं।

” भगवान् से भगवद्गीता सुनने के बाद अर्जुन ने कृष्ण को परम् ब्रह्म स्वीकार कर लिया। प्रत्येक जीव ब्रह्म है, लेकिन परम पुरुषोत्तम भगवान् परम ब्रह्म हैं। परम् धाम का अर्थ है कि वे सबों के परम आश्रय या धाम हैं। पवित्रम् का अर्थ है कि वे शुद्ध हैं, भौतिक कल्मष से बेदाग हैं। पुरुषम् का अर्थ है कि वे परम भोक्ता हैं; शाश्वतम् अर्थात् आदि, सनातनः दिव्यम् अर्थात् दिव्य आदि देवम्-भगवान्; अजम्- अजन्मा तथा विभुम् अर्थात् महानतम हैं।

कोई यह सोच सकता है कि चूँकि कृष्ण अर्जुन के मित्र थे, अतएव अर्जुन यह सब चाटुकारिता के रूप में कह रहा था। लेकिन अर्जुन भगवद्गीता के पाठकों के मन से इस प्रकार के सन्देह को दूर करने के लिए अगले श्लोक में इस प्रशंसा की पुष्टि करता है, जब वह यह कहता है कि कृष्ण को मैं ही भगवान नहीं मानता, अपितु नारद, असित, देवल तथा व्यासदेव जैसे महापुरुष भी भगवान् स्वीकार करते हैं। ये सब महापुरुष हैं, जो समस्त आचार्यों द्वारा स्वीकृत वैदिक ज्ञान का वितरण (प्रचार) करते हैं। अतएव अर्जुन श्रीकृष्ण से कहता है कि वे जो कुछ भी कहते हैं, उसे वह पूर्ण सत्य मानता है। सर्वमेतदृतं मन्ये “आप जो कुछ कहते हैं, उसे मैं सत्य मानता हूँ।” अर्जुन यह भी कहता है कि भगवान् के व्यक्तित्व को समझ पाना बहुत कठिन है, यहाँ तक कि बड़े-बड़े देवता भी उन्हें नहीं समझ पाते। अतएव मानव मात्र भक्त बने बिना भगवान् श्रीकृष्ण को कैसे समझ सकता है ?

अतएव भगवद्गीता को भक्तिभाव से ग्रहण करना चाहिए। किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि वह कृष्ण के तुल्य है, न ही यह सोचना चाहिए कि कृष्ण सामान्य पुरुष हैं या कि एक महान व्यक्तित्व हैं। भगवान् श्रीकृष्ण साक्षात् पुरुषोत्तम भगवान् हैं। अतएव भगवद्गीता के कथनानुसार या भगवद्गीता को समझने का प्रयत्न करने वाले अर्जुन के कथनानुसार हमें सिद्धान्त रूप में कम से कम इतना तो स्वीकार कर लेना चाहिए कि श्रीकृष्ण भगवान् हैं, और उसी विनीत भाव से हम भगवद्गीता को समझ सकते हैं। जब तक कोई भगवद्गीता का पाठ विनम्र भाव से नहीं करता है, तब तक उसे समझ पाना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि यह एक महान रहस्य है।

तो भगवद्गीता क्या है ? भगवद्गीता का प्रयोजन मनुष्य को भौतिक संसार के अज्ञान से उबारना है। प्रत्येक व्यक्ति अनेक प्रकार की कठिनाइयों में फँसा रहता है, जिस प्रकार अर्जुन भी कुरुक्षेत्र में युद्ध करने के लिए कठिनाई में था। अर्जुन ने श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण कर ली, फलस्वरूप इस भगवद्गीता का प्रवचन हुआ। केवल अर्जुन वरन हममें से प्रत्येक व्यक्ति इस भौतिक अस्तित्व के कारण चिन्ताओं से पूर्ण है। हमारा अस्तित्व ही अनस्तित्व के परिवेश में है। वस्तुतः हमें अनस्तित्व से भयभीत नहीं होना चाहिए। हमारा अस्तित्व सनातन है। लेकिन हम किसी न किसी कारण से असत में डाल दिए गये हैं। असत् का अर्थ उससे है जिसका अस्तित्व नहीं है।

कष्ट भोगने वाले अनेक मनुष्यों में केवल कुछ ही ऐसे हैं, जो वास्तव में यह जानने के जिज्ञासु हैं, कि वे क्या हैं, वे इस विषम स्थिति में क्यों डाल दिये गये हैं. आदि-आदि। जब तक मनुष्य को अपने कष्टों के विषय में जिज्ञासा नहीं होती, जब तक उसे यह अनुभूति नहीं होती कि वह कष्ट भोगना नहीं अपितु सारे कष्टों का हल ढूँढना चाहता है, तब तक उसे सिद्ध मानव नहीं समझना चाहिए। मानवता तभी शुरू होती है, जब मन में इस प्रकार की जिज्ञासा उदित होती है। ब्रह्म-सूत्र में इस जिज्ञासा को ब्रह्म जिज्ञासा कहा गया है। अथातो ब्रह्म-जिज्ञासा मनुष्य के सारे कार्यकलाप असफल माने जाने चाहिए, यदि वह परब्रह्म के स्वभाव के विषय में जिज्ञासा न करे। अतएव जो लोग यह प्रश्न करना प्रारम्भ कर देते हैं कि वे क्यों कष्ट उठा रहे हैं, या वे कहाँ से आये हैं और मृत्यु के बाद कहाँ जायेंगे, वे ही भगवद्गीता को समझने के सुपात्र विद्यार्थी हैं। निष्ठावान विद्यार्थी में भगवान के प्रति आदर भाव भी होना चाहिए। अर्जुन ऐसा ही विद्यार्थी था।

जब मनुष्य जीवन के वास्तविक प्रयोजन को भूल जाता है तो भगवान् कृष्ण विशेष रूप से उसी उद्देश्य की पुनर्स्थापना के लिए अवतार लेते हैं। तब भी असंख्य जागृत हुए लोगों में से कोई एक होता है, जो वास्तव में अपनी स्थिति को जान पाता है और यह भगवद्गीता उसी के लिए कही गई है। वस्तुतः हम सभी अविद्या रूपी बाघिन के द्वारा निगल लिए गए हैं, लेकिन भगवान् जीवों पर, विशेषतया मनुष्यों पर, कृपालु हैं। इसी उद्देश्य से उन्होंने अपने मित्र अर्जुन को अपना शिष्य बना कर भगवद्गीता का प्रवचन किया।

भगवान् कृष्ण का पार्षद होने के कारण अर्जुन समस्त अज्ञान (अविद्या) से मुक्त था, लेकिन कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में उसे अज्ञान में डाल दिया गया ताकि वह भगवान् कृष्ण से जीवन की समस्याओं के विषय में प्रश्न करे, जिससे भगवान् उनकी व्याख्या भावी पीढ़ियों के मनुष्यों के लाभ के लिए कर दें और जीवन की योजना का निर्धारण कर दें। तब मनुष्य तदनुसार कार्य कर पायेगा और मानव जीवन के उद्देश्य को पूर्ण कर सकेगा।

भगवद्गीता की विषयवस्तु में पाँच मूल सत्यों का ज्ञान निहित है। सर्वप्रथम ईश्वर के विज्ञान की और फिर जीवों की स्वरूप स्थिति की विवेचना की गई है। ईश्वर का अर्थ नियन्ता है और जीवों का अर्थ है-नियन्त्रित। यदि जीव यह कहे कि वह नियन्त्रित नहीं अपितु स्वतन्त्र है तो वह पागल है। जीव सभी प्रकार से, कम से कम बद्ध जीवन में तो, नियन्त्रित है। अतएव भगवद्गीता की विषयवस्तु ईश्वर, सर्वोच्च नियंता तथा जीव नियंत्रित जीवात्माएँ, से सम्बन्धित है। इसमें प्रकृति (भौतिक प्रकृति), काल (समस्त ब्रह्माण्ड की कालावधि या प्रकृति का प्राकट्य) तथा कर्म (कार्यकलाप) की भी व्याख्या है। यह दृश्य-जगत विभिन्न कार्यकलापों से ओतप्रोत है। सारे जीव भिन्न-भिन्न कार्यों में लगे हुए हैं। भगवद्गीता से हमें अवश्य सीखना चाहिए कि ईश्वर क्या है, जीव क्या है, प्रकृति क्या है, दृश्य-जगत क्या है, यह काल द्वारा किस प्रकार नियन्त्रित किया जाता है और जीवों के कार्यकलाप क्या हैं?

भगवद्गीता के इन पाँच मूलभूत विषयों में से इसकी स्थापना की गई है कि भगवान्, अथवा कृष्ण अथवा ब्रह्म, या परमात्मा- अथवा परम नियंता, आप जो चाहें कह लें— सबसे श्रेष्ठ है। जीव गुण में परम-नियन्ता के ही समान हैं। उदाहरणार्थ, जैसा कि भगवद्गीता के विभिन्न अध्यायों में बताया जायेगा, भगवान् भौतिक प्रकृति के समस्त कार्यों के ऊपर नियन्त्रण रखते हैं। भौतिक प्रकृति स्वतन्त्र नहीं है। वह परमेश्वर के निर्देशन में कार्य करती है। जैसा कि भगवान् कृष्ण कहते हैं मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम- भौतिक प्रकृति मेरे निर्देशन में कार्य करती है। जब हम दृश्य-जगत् में आश्चर्यजनक घटनाएँ घटते देखते हैं, तो हमें यह जानना चाहिए कि इस दृश्य जगत् के पीछे एक नियन्ता है। बिना नियन्त्रण के किसी का प्रकट होना सम्भव नहीं। नियन्ता को न मानना बचपना है। उदाहरणार्थ, एक बालक सोच सकता है कि स्वतोचालित यान विचित्र होता है, क्योंकि यह बिना घोड़े के या खींचने वाले पशु से चलता है। किन्तु अभिज्ञ व्यक्ति स्वतोचालित यान की आभियान्त्रिक व्यवस्था से परिचित होता है। वह सदैव जानता है कि इस यन्त्र के पीछे एक व्यक्ति, एक चालक होता है। इसी प्रकार परमेश्वर वह चालक है, जिसके निर्देशन में सब कार्य हो रहा है। भगवान् ने जीवों को अपने अंश-रूप में स्वीकार किया है, जैसा कि हम अगले अध्यायों में देखेंगे। सोने का एक कण भी सोना है, समुद्र के जल की बूँद भी खारी होती है। इसी प्रकार हम जीव भी परम-नियन्ता ईश्वर या भगवान् श्रीकृष्ण के अंश होने के कारण सूक्ष्म मात्रा में परमेश्वर के सभी गुणों से युक्त होते हैं, क्योंकि हम सूक्ष्म ईश्वर या अधीनस्थ ईश्वर हैं। हम प्रकृति पर नियन्त्रण करने का प्रयास कर रहे हैं, जैसे कि वर्तमान में हम अन्तरिक्ष या ग्रहों को वश में करना चाहते हैं और हममें नियन्त्रण रखने की यह प्रवृत्ति इसलिए है क्योंकि यह कृष्ण में भी है। यद्यपि हममें भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जमाने की प्रवृत्ति होती है, लेकिन हमें यह जानना चाहिए कि हम परम-नियन्ता नहीं हैं। इसकी व्याख्या भगवद्गीता में की गई है।

भौतिक प्रकृति क्या है? गीता में इसकी भी व्याख्या अपरा प्रकृति के रूप में हुई है। जीव को परा प्रकृति (उत्कृष्ट प्रकृति) कहा गया है। प्रकृति चाहे परा हो या अपरा, सदैव नियन्त्रण में रहती है। प्रकृति स्त्री स्वरूपा है और वह भगवान् द्वारा उसी प्रकार नियन्त्रित होती है, जिस प्रकार पत्नी अपने पति द्वारा प्रकृति सदैव अधीन रहती है, उस पर भगवान् का प्रभुत्व रहता है, क्योंकि भगवान् ही नियंत्रक हैं। जीव तथा भौतिक प्रकृति दोनों ही परमेश्वर द्वारा अधिशासित एवं नियन्त्रित होते हैं। गीता के अनुसार यद्यपि सारे जीव परमेश्वर के अंश हैं, लेकिन वे प्रकृति हो। माने जाते हैं। इसका स्पष्ट उल्लेख भगवद्गीता के सातवें अध्याय में हुआ है। •अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यतेज यह भौतिक प्रकृति मेरी अपरा प्रकृति है, लेकिन इससे भी परे दूसरी प्रकृति है-जीव भूताम् अर्थात् जीव है।

भौतिक प्रकृति तीन गुणों से निर्मित है- सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण इन गुणों के ऊपर नित्य काल है और इन प्रकृति के गुणों तथा नित्य काल के नियंत्रण व संयोग से अनेक कार्यकलाप होते हैं, जो कर्म कहलाते हैं। ये कार्यकलाप अनादि काल से चले आ रहे हैं और हम सभी अपने कार्यकलाप (कर्मों) के फलस्वरूप सुख या दुःखभोग रहे हैं। उदाहरणार्थ, मान लें कि मैं व्यापारी हूँ और मैंने बुद्धि के बल पर कठोर श्रम किया है और बहुत सम्पत्ति संचित कर ली है। तब मैं सम्पति के सुख का भोक्ता हूँ, किन्तु यदि मान लें कि व्यापार में हानि से मेरा सब धन जाता रहा तो मैं दुःखका भोक्ता हो जाता हूँ। इसी प्रकार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हम अपने कर्म के फल का सुख भोगते हैं या उसका कष्ट उठाते हैं। यह कर्म कहलाता है।
ईश्वर, जीव, प्रकृति, काल तथा कर्म इन सबकी व्याख्या भगवद्गीता में हुई है। इन पाँचों में से ईश्वर, जीव, प्रकृति तथा काल शाश्वत हैं। प्रकृति की अभिव्यक्ति अस्थायी हो सकती है, परन्तु यह मिथ्या नहीं है। कोई-कोई दार्शनिक कहते हैं कि प्रकृति की अभिव्यक्ति मिथ्या है लेकिन भगवद्गीता या वैष्णवों के दर्शन के अनुसार ऐसा नहीं है। जगत की अभिव्यक्ति को मिथ्या नहीं माना जाता। इसे वास्तविक, किन्तु अस्थायी माना जाता है। यह उस बादल के सदृश है, जो आकाश में घूमता रहता है, या वर्षा ऋतु के आगमन के समान है, जो अन्न का पोषण करती है। ज्योंही वर्षा ऋतु समाप्त होती है और बादल चले जाते हैं, त्योंही वर्षा द्वारा पोषित सारी फसल सूख जाती है। इसी प्रकार यह भौतिक अभिव्यक्ति एक निश्चित अन्तराल में होती है, कुछ काल तक ठहरती है और फिर लुप्त हो जाती है। प्रकृति इस रूप में कार्यशील है। लेकिन यह चक्र निरन्तर चलता रहता है। इसीलिए प्रकृति शाश्वत है, मिथ्या नहीं है। भगवान् इसे मेरी प्रकृति कहते हैं। यह भौतिक प्रकृति (अपरा) प्रकृति) परमेश्वर की भिन्ना-शक्ति है। इसी प्रकार जीव भी परमेश्वर की शक्ति हैं, किन्तु वे विलग नहीं, अपितु भगवान् से नित्य सम्बद्ध हैं। इस तरह भगवान्, जीव, प्रकृति तथा काल, ये सब परस्पर सम्बन्धित हैं और सभी शाश्वत हैं। लेकिन दूसरी वस्तु कर्म शाश्वत नहीं है। हाँ, कर्म के प्रभाव अत्यन्त पुरातन हो सकते हैं। हम अनादि काल से अपने शुभ-अशुभ कर्मफलों को भोग रहे हैं, किन्तु साथ ही हम अपने कर्मों के फल को बदल भी सकते हैं और यह परिवर्तन हमारे ज्ञान की पूर्णता पर निर्भर करता है। हम विविध प्रकार के कर्मों में व्यस्त रहते हैं। निस्सन्देह हम यह नहीं जानते कि किस प्रकार के कर्म करने से हम कर्मफल से राहत प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन भगवद्गीता में इसका भी वर्णन हुआ है।

ईश्वर अर्थात् परम ईश्वर की स्थिति परम चेतना-स्वरूप है। जीव भी ईश्वर के अंश होने के कारण चेतन है। जीव तथा भौतिक प्रकृति दोनों को प्रकृति बताया गया है अर्थात् वे परमेश्वर की शक्ति हैं, किन्तु इन दोनों में से केवल जीव चेतन है, दूसरी प्रकृति चेतन नहीं है। यही अन्तर है। इसीलिए जीव प्रकृति परा या उत्कृष्ट कहलाती है, क्योंकि जीव, भगवान् जैसी चेतना से युक्त है। लेकिन भगवान् की चेतना परम है और किसी को यह नहीं कहना चाहिए कि जीव भी परम चेतन है। जीव कभी भी, यहाँ तक कि अपनी सिद्ध अवस्था में भी, परम चेतन नहीं हो सकता और यह सिद्धान्त भ्रामक है कि जीव परम चेतन हो सकता है। वह चेतन तो हो सकता है, लेकिन पूर्ण या परम चेतन नहीं।

जीव तथा ईश्वर का अन्तर भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय में बताया जायेगा। ईश्वर क्षेत्रज्ञ व चेतन है, जैसा कि जीव भी है, लेकिन जीव केवल अपने शरीर के प्रति सचेत रहता है, जबकि भगवान् समस्त शरीरों के प्रति सचेत रहते हैं। चूँकि वे प्रत्येक जीव के हृदय में वास करते हैं, अतएव वे जीवविशेष की मानसिक गतिशीलता से परिचित रहते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए। यह भी बताया गया है कि परमात्मा प्रत्येक जीव के हृदय में ईश्वर या नियन्ता के रूप में वास कर रहे हैं और जैसा जीव चाहता है वैसा करने के लिए जीव को निर्देशित करते रहते हैं। जीव भूल जाता है कि उसे क्या करना है। पहले तो वह किसी एक विधि से कर्म करने का संकल्प करता है, लेकिन फिर वह अपने ही कर्म की क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं में उलझ जाता है। एक प्रकार का शरीर त्यागने के बाद वह दूसरा शरीर ग्रहण करता है, जिस प्रकार हम वस्त्र, उतारते तथा पहनते रहते हैं। इस प्रकार जब आत्मा देहान्तरण कर जाता है, अतः उसे अपने विगत (पूर्वकृत्) कर्मों का फल भोगना पड़ता है। ये कार्यकलाप तभी बदल सकते हैं, जब जीव सतोगुण में स्थित हो और यह समझे कि उसे कौन से कर्म करने चाहिए। यदि वह ऐसा करता है तो उसके विगत (पूर्वकृत्) कर्मों के सारे फल बदल जाते हैं। फलस्वरूप कर्म, शाश्वत नहीं हैं। इसीलिए हमने यह कहा है कि पाँचों (ईश्वर, जीव, प्रकृति, काल तथा कर्म) में से चार शाश्वत हैं, कर्म शाश्वत नहीं है।

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